आज की इस पोस्ट में हम What Is Ras In Hindi के बारे में बताने वाले है, यदि आप भी हिंदी ग्रामर के रस की परिभाषा, अंगो एवं उनके बारे में पूर्ण जानकारी प्राप्त करना चाहते है तो इस आर्टिकल को लास्ट तक पढ़िए।
what is ras in hindi |
यहाँ पर Ras In Hindi की परिभाषा के साथ-साथ उनको उदाहरणों सहित समझाया गया है। Ras In Hindi Grammar का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है। सबसे ज्यादा ras in hindi class 10 वालो के लिए महत्वपूर्ण होता है। चाहे आप कोई सी कक्षा में हो परन्तु आपको रस के बारे में पता होना चाहिए।
What Is Ras In Hindi
रस : रस का शाब्दिक अर्थ है 'आनन्द'। काव्य को पढ़ने या सुनने से जिस आनन्द की अनुभूति होती है, उसे रस कहा जाता है।रस को काव्य की आत्मा माना जाता है।
प्राचीन भारतीय वर्ष में रस का बहुत महत्वपूर्ण स्थान था। रस -संचार के बिना कोई भी प्रयोग सफल नहीं किया जा सकता था। रस के कारण कविता के पठन , श्रवण और नाटक के अभिनय से देखने वाले लोगों को आनन्द मिलता है।
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श्रव्य काव्य के पठन अथवा श्रवण एवं दृश्य काव्य के दर्शन तथा श्रवण में जो अलौकिक आनन्द प्राप्त होता है, वही काव्य में रस कहलाता है। रस से जिस भाव की अनुभूति होती है वह रस का स्थायी भाव होता है। रस, छंद और अलंकार - काव्य रचना के आवश्यक अवयव हैं।
पाठक या श्रोता के हृदय में स्थित स्थायीभाव ही विभावादि से संयुक्त होकर रस के रूप में परिणत हो जाता है।
रस को 'काव्य की आत्मा' या 'प्राण तत्व' माना जाता है।
भरतमुनि द्वारा रस की परिभाषा-
रस उत्पत्ति को सबसे पहले परिभाषित करने का श्रेय भरत मुनि को जाता है। उन्होंने अपने 'नाट्यशास्त्र' में रास रस के आठ प्रकारों का वर्णन किया है। रस की व्याख्या करते हुए भरतमुनि कहते हैं कि सब नाट्य उपकरणों द्वारा प्रस्तुत एक भावमूलक कलात्मक अनुभूति है। रस का केंद्र रंगमंच है। भाव रस नहीं, उसका आधार है किंतु भरत ने स्थायी भाव को ही रस माना है।
भरतमुनि ने लिखा है- "विभावानुभावव्यभिचारी- संयोगद्रसनिष्पत्ति " अर्थात विभाव, अनुभाव तथा संचारी भावों के संयोग से रस की निष्पत्ति होती है। अत: भरतमुनि के 'रस तत्त्व' का आधारभूत विषय नाट्य में रस (Ras) की निष्पत्ति है।
काव्य शास्त्र के मर्मज्ञ विद्वानों ने काव्य की आत्मा को ही रस माना है।
अन्य विद्वानों के अनुसार रस की परिभाषा
आचार्य धनंजय के अनुसार रस की परिभाषा
विभाव, अनुभाव, सात्त्विक, साहित्य भाव और व्यभिचारी भावों के संयोग से आस्वाद्यमान स्थायी भाव ही रस है।
साहित्य दर्पणकार आचार्य विश्वनाथ ने रस की परिभाषा देते हुए लिखा है:
विभावेनानुभावेन व्यक्त: सच्चारिणा तथा।
रसतामेति रत्यादि: स्थायिभाव: सचेतसाम्॥
डॉ. विश्वम्भर नाथ के अनुसार रस की परिभाषा:
भावों के छंदात्मक समन्वय का नाम ही रस है।
आचार्य श्याम सुंदर दास के अनुसार रस की परिभाषा:
स्थायी भाव जब विभाव, अनुभाव एवं संचारी भावों के योग से आस्वादन करने योग्य हो जाता है, तब सहृदय प्रेक्षक के हृदय में रस रूप में उसका आस्वादन होता है।
आचार्य रामचंद्र शुक्ल के अनुसार रस की परिभाषा-
जिस भांति आत्मा की मुक्तावस्था ज्ञानदशा कहलाती है। उसी भांति हृदय की मुक्तावस्था रस दशा कहलाती है।
रस के अंग
हिन्दी व्याकरण में रस के चार अवयव या अंग होते हैं। जो इस प्रकार हैं-
- विभाव
- अनुभाव
- संचारी भाव
- स्थायीभाव
1. रस का विभाव
जो व्यक्ति , पदार्थ, अन्य व्यक्ति के ह्रदय के भावों को जगाते हैं उन्हें विभाव कहते हैं। इनके आश्रय से रस प्रकट होता है यह कारण निमित्त अथवा हेतु कहलाते हैं। विशेष रूप से भावों को प्रकट करने वालों को विभाव रस कहते हैं। इन्हें कारण रूप भी कहते हैं।
स्थायी भाव के प्रकट होने का मुख्य कारण आलम्बन विभाव होता है। इसी की वजह से रस की स्थिति होती है। जब प्रकट हुए स्थायी भावों को और ज्यादा प्रबुद्ध , उदीप्त और उत्तेजित करने वाले कारणों को उद्दीपन विभाव कहते हैं।
रस का विभाव दो तरह का होता है-
- आलंबन विभाव
- उद्दीपन विभाव
1. आलंबन विभाव
जिसका आलंबन या सहारा पाकर स्थायी भाव जगते हैं आलंबन विभाव कहलाता है। जैसे- नायक-नायिका। आलंबन विभाव के दो पक्ष होते हैं:-
- आश्रयालंबन
- विषयालंबन
जिसके मन में भाव जगे वह आश्रयालंबन तथा जिसके प्रति या जिसके कारण मन में भाव जगे वह विषयालंबन कहलाता है। उदाहरण : यदि राम के मन में सीता के प्रति रति का भाव जगता है तो राम आश्रय होंगे और सीता विषय।
2. उद्दीपन विभाव
जिन वस्तुओं या परिस्थितियों को देखकर स्थायी भाव उद्दीप्त होने लगता है उद्दीपन विभाव कहलाता है। जैसे- चाँदनी, कोकिल कूजन, एकांत स्थल, रमणीक उद्यान, नायक या नायिका की शारीरिक चेष्टाएँ आदि।
2. रस का अनुभाव
मनोगत भाव को व्यक्त करने के लिए शरीर विकार को अनुभाव कहते हैं। वाणी और अंगों के अभिनय द्वारा जिनसे अर्थ प्रकट होता है उन्हें अनुभाव कहते हैं। अनुभवों की कोई संख्या निश्चित नहीं हुई है।
जो आठ अनुभाव सहज और सात्विक विकारों के रूप में आते हैं उन्हें सात्विकभाव कहते हैं। ये अनायास सहजरूप से प्रकट होते हैं। इनकी संख्या आठ होती है।
- स्तंभ
- स्वेद
- रोमांच
- स्वर – भंग
- कम्प
- विवर्णता
- अश्रु
- प्रलय
3. रस का संचारी भाव
जो स्थानीय भावों के साथ संचरण करते हैं वे संचारी भाव कहते हैं। इससे स्थिति भाव की पुष्टि होती है। एक संचारी किसी स्थायी भाव के साथ नहीं रहता है इसलिए ये व्यभिचारी भाव भी कहलाते हैं। इनकी संख्या 33 मानी जाती है।
- हर्ष
- चिंता
- गर्व
- जड़ता
- बिबोध
- स्मृति
- व्याधि
- विशाद
- शंका
- उत्सुकता
- आवेग
- श्रम
- मद
- मरण
- त्रास
- असूया
- उग्रता
- धृति
- निंद्रा
- अवहित्था
- ग्लानि
- मोह
- दीनता
- मति
- स्वप्न
- अपस्मार
- निर्वेद
- आलस्य
- उन्माद
- लज्जा
- अमर्श
- चपलता
- दैन्य
- सन्त्रास
- औत्सुक्य
- चित्रा
- वितर्क
4. स्थायीभाव
स्थायी भाव का मतलब है प्रधान भाव। प्रधान भाव वही हो सकता है जो रस की अवस्था तक पहुँचता है। काव्य या नाटक में एक स्थायी भाव शुरू से आख़िरी तक होता है। स्थायी भावों की संख्या 9 मानी गई है। स्थायी भाव ही रस का आधार है। एक रस के मूल में एक स्थायी भाव रहता है। अतएव रसों की संख्या भी 9 हैं, जिन्हें नवरस कहा जाता है। मूलत: नवरस ही माने जाते हैं। बाद के आचार्यों ने 2 और भावों वात्सल्य और भगवद विषयक रति को स्थायी भाव की मान्यता दी है। ऐसे स्थायी भावों की संख्या 11 तक पहुँच जाती है और तदनुरूप रसों की संख्या भी 11 तक पहुँच जाती है।
रस के प्रकार, Ras Ke Bhed
- श्रृंगार रस
- हास्य रस
- रौद्र रस
- करुण रस
- वीर रस
- अद्भुत रस
- वीभत्स रस
- भयानक रस
- शांत रस
- वात्सल्य रस
- भक्ति रस
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